शनिवार, 20 मार्च 2010

वेदाध्ययन करने वालों के लिए दो तत्व अनिवार्य बताए हैं—श्रद्धा एवं साधना।

नेति-नेति


उपनिषद् की यह अवधारणा कि वह पूर्ण है और यह भी पूर्ण है। पूर्ण से ही पूर्ण का उदय-विकास होता है। उस पूर्ण में से यह पूर्ण प्राप्त कर लेने पर भी वह पूर्ण ही रहता है—

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते।।


अस्तु वेद का वह सनातन भाण्डागार पूर्ण है। उससे प्रकट यह वेद भी पूर्ण हैं, क्योंकि समकालीन सृष्टि तन्त्र का पूर्ण ज्ञान इसमें रहता है। सनातन वेद में से प्रत्यक्ष वेद के प्रकट होने या न होने से उस सनातन की पूर्णता में कोई अन्तर नहीं पड़ता। पदार्थ से उत्पन्न ज्ञान (पाश्चात्य-विज्ञान) पदार्थ के साथ नष्ट हो सकता है, किन्तु चेतना अनश्वर है, इसलिए चेतना से उद्भूत ज्ञान को भी अनश्वर कहा गया है।। ऋषियों ने यह ज्ञान समाधि द्वारा परमात्म तत्त्व से एकाकार होकर पाया था। ऋषियों का ज्ञान ‘साक्षात्कार का ज्ञान’ नॉलेज बाय आयडेन्टिटी (Knowledge by Identity) है। देख-पढ़कर, बैद्धिकता, तार्किक विश्लेषण द्वारा अथवा बाह्य प्रेरणा द्वारा ऐसा ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। यह हमारी संस्कृति की ही अनादिकालीन परम्परा रही है कि ज्ञान-प्राप्ति हेतु ऋषि-गण आत्मसत्ता की प्रयोगशाला में जाकर अन्तर्मुखी हो मनन, निदिध्यासन तथा फिर समाधि की स्थिति में जाकर चेतना जगत् के सूत्रों को खोज लाते थे। उन ज्ञान सूत्रों का क्रमबद्ध संकलन हमें वेद मंत्रों के रूप में उपलब्ध है। ऋषियों ने वेद को पूर्ण तो कहा, किन्तु उसी के साथ नेति-नेति (यही अंतिम नहीं है) भी कहा ‘पूर्णमिदं’ के साथ नेति-नेति कहना उनके तत्त्व द्रष्टा और स्पष्ट वक्ता होने का प्रमाण है। अंतर्दृष्टि की परिपक्वता के बिना कोई व्यक्ति ऐसी उक्ति कह नहीं सकता। ऋषियों ने लोक एवं काल की आवश्यकता के अनुरूप चेतना के समग्र सूत्र प्रकट कर दिये। इसलिए उन्हें पूर्ण तो कहा, किन्तु वे देख रहे थे कि यह पूर्ण ज्ञान भी इस दिव्य ज्ञान भाण्डागार का एक अंश मात्र है। इसलिए उन्होंने नेति (यही अंतिम नहीं) कह दिया। आवश्यकता के अनुरूप जिस ज्ञान का बोध उन्होंने किया, उसे जन-जन तक पहुँचाने के लिए उसे भाषा में व्यक्त करना आवश्यक हुआ। अनुभूति को व्यक्त करने में भाषा सामान्य व्यवहार में भी अक्षम सिद्ध होती है, सो वेदानुभूति को व्यक्त करने में तो वह समर्थ हो ही कैसे सकती थी ? अस्तु ऋषियों ने स्पष्टता से कह दिया जितना कुछ व्यक्त किया जा सका, तथ्य केवल उतना ही नहीं है। उसे पूर्णतया समझने के लिए तो स्वानुभूति की क्षमता ही विकसित करनी होती है।

देवसंस्कृति के मर्मज्ञ ऋषियों ने इसी कारण से वेदाध्ययन करने वालों के लिए दो तत्व अनिवार्य बताए हैं—श्रद्धा एवं साधना। श्रद्धा की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि आलंकारिक भाषा में कहे गए रूपकों के प्रतिमान—शाश्वत सत्यों को पढ़कर बुद्धि भ्रमित न हो जाय। साधना इस कारण आवश्यक है कि श्रवण-मनन-निदिध्यासन की परिधि से भू ऊपर उठकर मन ‘‘अनन्तं निर्विकल्पम्’’ की विकसित स्थिति में जाकर इन सत्यों का स्वयं साक्षात्कार कर सके। मंत्रों का गुह्यार्थ तभी जाना जा सकता है।

http://pustak.org/bs/home.php?bookid=35

1 टिप्पणी:

  1. श्रद्धा अत्यंत आवश्यक है क्योंकि यदि तुम किसी विषय में पहले से ही संदेह रखोगे तो उसमें कमियां ही ढूंढोगे इसीलिए साधना के लिए योग दर्शन के द्वारा उपदेशित अष्टांग योग आवश्यक है, उसका पालन करने वाला और ६ वेद उपांग और ६ वेदांगों को पढ़ने के पश्चात यदि बुद्धिमान व्यक्ति है तो उसमें अत्यंत अपार श्रद्धा स्वतः उत्पन्न हो जायेगी और वह वेद अध्यन के योग्य बनेगा.

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